छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में हुई नक्सलियों और सुरक्षाबलों की मुठभेड़ में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के 12 लड़ाके और एसटीएफ के 5 जवानों की मौत एक बड़ी चूक का नतीजा थी। खुद को साबित करने और कुछ ज्यादा पाने के लालच में ये लड़ाके इतनी आगे निकल गए कि 'नक्सल के अजगर' कहे जाने वाले हिड़मा दस्ते ने आसानी से इनका शिकार कर लिया।
इनके पीछे सीआरपीएफ 'कोबरा' (कमांडो बटालियन फॉर रिजोल्यूट एक्शन) टीम और '150' बटालियन भी थी, लेकिन डीआरजी के लड़ाकों को भरोसा था कि वे अपने दम पर नक्सलियों को खत्म कर वाहवाही लूट लेंगे। इसी चक्कर में वे बाकी टीमों से काफी आगे निकल गए।
सीआरपीएफ के यूएवी में नक्सल गतिविधियों के फोटो भी नजर आए, इसके बावजूद बिना किसी तालमेल के वे लड़ाके बिल्कुल उसी दिशा में, उसी तरह आगे बढ़ गए, जैसा हिड़मा दस्ता चाहता था। और उनके घेरे में फंसकर जान गंवा बैठे।
डीआरजी में शामिल जवान, आखिर कौन हैं
बता दें कि डीआरजी में स्थानीय आदिवासियों को भर्ती किया गया है। ये लोग कभी नक्सलियों के बहुत निकट माने जाते थे। इनमें बहुत से ऐसे भी थे जो किसी न किसी तरह नक्सल कॉडर का हिस्सा रहे हैं। सरकार ने एक नीति के तहत इनका आत्मसमर्पण कराया। मुख्यधारा में लौटने के बाद इन्हें डीआरजी में शामिल कर लिया गया। ये भी कह सकते हैं कि डीआरजी इन्हीं लोगों के लिए बनाई गई थी।
नक्सल का टॉप कॉडर भी इनकी बहादुरी से परिचित है। यही वजह है कि अब वे डीआरजी को निशाना बनाने की फिराक में रहते हैं। दूसरी ओर, ये जवान भी सरकार और लोगों की नजरों में खुद को साबित करने के लिए सदैव दो कदम आगे चलना चाहते हैं।
नक्सल प्रभावित इलाके में लंबे समय से तैनात सीआरपीएफ के एक कमांडर बताते हैं, ऐसा नहीं है कि इनमें बहादुरी की कमी है। ये जंगलों के लड़ाके हैं। हालांकि इनके पास वैसे हथियार नहीं हैं, जो होने चाहिए। इनका अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क है। हर ऑपरेशन में इनका जुनून यही रहता है कि किसी भी तरह से ये खुद को साबित करें।
अनुभवी नेतृत्व की भी चुनौती
यहां एक बड़ी दिक्कत नेतृत्व की है। बड़े ऑपरेशन में भी डीआरजी का नेतृत्व हवलदार या एएसआई करता है। वह सभी मुठभेड़ की रणनीति बनाने में कुशल होगा, ये हर जगह संभव नहीं होता।
सीआरपीएफ में नक्सलियों को मारने पर कोई प्रमोशन नहीं मिलता, जबकि डीआरजी में हर नक्सली की मौत पर कुछ भत्ते और प्रमोशन देने का प्रावधान है। यही वो लालच या चाहत है, जो उन्हें सामंजस्य और नेतृत्व जैसी बातों से दूर ले जाती है। सीआरपीएफ में इस तरह के ऑपरेशन के दौरान डिप्टी कमांडेंट और दो सहायक कमांडेंट साथ रहते हैं।
चार टीमें, दो सौ जवान, मगर होती गई चूक दर चूक ...
शनिवार को मिनपा के जंगलों में कोबरा, सीआरपीएफ बटालियन, एसटीएफ और डीआरजी की संयुक्त टीम विशेष ऑपरेशन के लिए निकली थी और इसमें दो सौ से अधिक जवान थे। कोराजगुड़ा के चिंतागुफा इलाके में इन टीमों ने नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की।
सीआरपीएफ के मुताबिक, इलाके में नक्सलियों की भारी मौजूदगी का अहसास था। यूएवी से मिली तस्वीर और लोकल इंटेलिजेंस रिपोर्ट से भी यह पुष्टि हो गई थी। उधर, हिड़मा कमांडर का दस्ता, जिसमें नक्सल की सेंट्रल टीम के सदस्य होते हैं, ये कॉडर में टॉप माना जाता है। इनका इंटेलिजेंस नेटवर्क भी बेहद मजबूत है।
इन्होंने डीआरजी को अपने जाल में फंसाया। ये जंगल में उन रास्तों पर अपने सबूत छोड़ते चले गए, जहां से डीआरजी को निकलना था। डीआरजी ने देखा, तो उसके जवान खुश हो गए। उन्होंने यह जानकारी पीछे चल रही सीआरपीएफ तक नहीं पहुंचाई।
चूंकि ये लोग लड़ना तो जानते हैं, लेकिन ऑपरेशन के दौरान कब कौन सा निर्णय लेना है, इसमें ये मार खा जाते हैं। स्थानीय हैं, इन्हें भी जंगलों के चप्पे-चप्पे का हाल मालूम है। कितना आगे जाना है और पीछे स्पोर्ट है या नहीं, दूरी कितनी है, इन बातों की परवाह किए बिना ये लड़ाके बहुत आगे निकल गए।
नतीजा, हिड़मा दस्ते ने इन्हें चारों तरफ से घेर लिया। बाकी टीमों का कोई अता-पता नहीं था। हालांकि एसटीएफ के कुछ जवान डीआरजी के साथ थे। नक्सलियों ने रणनीति के तहत डीआरजी की गोलियां बर्बाद कराईं। उन्होंने जंगल में पटाखे छोड़कर डीआरजी को फायर के लिए मजबूर किया।
डीआरजी बिना किसी नियमों का पालन किए आगे बढ़ते रहे और गुरिल्ला नक्सलियों के चक्रव्यूह में फंस कर रह गए।
नक्सलियों के पास बीपी जैकेट व पटके भी थे
हिड़मा के पास सीजीआरएल, रॉकेट लांचर और मोर्टार जैसे घातक हथियार थे। वे सभी बीपी जैकेट और सिर पर पटका पहने हुए थे। अभी तक जैकेट और पटका केवल सुरक्षाबलों के पास ही होते थे। अब नक्सली भी इनका इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरी ओर, डीआरजी व एसटीएफ के पास बड़े हथियार नहीं थे।
उनके पास ज्यादातर एके 47 थीं, जिसकी गोलियां नक्सलियों ने अपनी खास रणनीति से व्यर्थ करा दीं। नक्सलियों ने जवानों पर चारों तरफ से फायरिंग की। रॉकेट लांचर और मोर्टार का भी जमकर इस्तेमाल किया।
हिड़मा इन जवानों को अपने चक्रव्यूह में फंसा कर इतनी दूर ले गया कि बाद में सीआरपीएफ जवानों को वहां तक पहुंचने में ही कई घंटे लग गए। यही वजह रही कि नक्सली, डीआरजी और एसटीएफ जवानों के सभी हथियार लूट ले गए।
सीआरपीएफ कमांडर के अनुसार, इस घटना को टाला जा सकता था, बशर्तें डीआरजी के लड़ाके एक समन्वयपूर्ण नीति से आगे बढ़ते। लेकिन इलाके के सबसे बड़े नक्सल लीडर हिड़मा, जिसका अपना बहुत सटीक इंटेलिजेंस नेटवर्क है, द्वारा बनाई गई रणनीति में लड़ाके फंस गए।